द पब्लिकेट टीम। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा, जिसे रथ महोत्सव भी कहा जाता है, एक पवित्र त्योहार है जो हर साल पुरी में मनाया जाता है। इस महोत्सव के पीछे की कहानी भगवान जगन्नाथ, उनके भाई भगवान बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा के गुंडिचा मंदिर की यात्रा से जुड़ी हुई है। यह मंदिर उनकी मौसी का घर माना जाता है, और भगवान जगन्नाथ हर साल वहां जाने के लिए उत्सुक रहते है। हिन्दू धर्म के प्रमुख त्योहारों में जगन्नाथ रथ यात्रा भी शामिल है। हिन्दू समाज में इस त्योहार का बहुत महत्व है। जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत बारवी से सोलवी शताब्दी के बीच मे हुई थी। मान्यताओं की माने तो भगवान जगन्नाथ श्री कृष्ण के ही अवतार है। द पब्लिकेट की टीम आज आपको बताने वाली है कि भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा की क्या अद्भुत कहानी और उनके रथ की क्या विशेषताएँ है। इसे लेकर आज की खास खबर :
आषाढ़ माह के शुल्क पक्ष की द्वितीया तिथि से जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत जगन्नाथ पुरी मे होती है, जिसका समापन शुल्क पक्ष की दस्वी तिथि को हर वर्ष होता है।
ओडिशा राज्य के पुरी में यह त्योहार बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। रथयात्रा मे भगवान जगन्नाथ के भक्त ढोल, नगाड़े और शंखध्वनि के बीच रथ को खिंचते है। जगन्नाथ यात्रा, जगन्नाथ मंदिर से शुरू होकर गूँडिचा मंदिर तक चलती है। मन जाता है गूँडिचा मंदिर भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है जहां वह 7 दिन के लिए विश्राम करने के लिए रुकते है। जिसके बाद शुल्क पक्ष की दस्वी तिथि को तीनों रथ वापस मुख्य मंदिर की ओर रवाना हो जाते है। वापसी यात्रा को बहुडा यात्रा भी कहा जाता है। रथ यात्रा के सिर्फ दर्शन करने से ही 1000 यज्ञों का पुण्य मिल जाता है।
रथ यात्रा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भगवान जगन्नाथ हर साल अपने जन्मस्थान पुरी लौटते हैं और अपनी मौसी के साथ समय बिताते हैं। इस यात्रा में भक्तजन उनके विशाल रथों को खींचने में मदद करते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो कोई भी रथ की रस्सियों को छूता है, उसे भगवान का आशीर्वाद मिलता है और उसके सभी पाप धुल जाते हैं। लोग भगवान जगन्नाथ की इस दिव्य यात्रा में भाग लेने और उनका आशीर्वाद पाने के लिए दूर-दूर से आते है।
रथों की विशेषताए
रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र ओर बहन सुभद्रा के साथ पूरे शहर का भ्रमण करते है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा तीनों अलग अलग रथों पर विराजित होकर गूँडिचा मंदिर तक जाएंगे। यात्रा में सबसे आगे बलभद्र का रथ होगा और पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होगा, सुभद्रा का रथ दोनों भाइयों के रथो के बीच मे होगा। बताया जाता है यात्रा मे तीनों रथो की अपनी अलग अलग विशेषताए होती है।
भगवान बलभद्र के रथ की विशेषता
भगवान बलभद्र के रथ का नाम ताल्ध्वाज है, जिसकी ऊंचाई 43.3 फीट है। रथ मे 14 पहिये होते हैं और रंग लाल या हरा होता है। मालती रथ के सारथी है और रथ के संरक्षक वासुदेव है। रथ के दो द्वारपाल भी है जिनके नाम नन्द और सुनंद है। रथ पर ध्वज भी लहराता है जिसका नाम उन्ननी है। बलभद्र के रथ की ऊंचाई जगन्नाथ रथ से ज्यादा होती है जिससे भक्तों को पता लग जाता है की बलभद्र या रहे है।
देवी सुभद्रा के रथ की विशेषता
देवी सुभद्रा के रथ का नाम दर्पदलन है, जिसकी ऊंचाई 42.3 फीट है। रथ मे 12 पहिये हैं ओर रंग लाल या काला होता है। अर्जुन रथ के सारथी है और रथ के संरक्षक जयदुर्गा है। रथ मे दो द्वारपाल भी है जिनके नाम गंगा और यमुना हैं। तीनों रथो मे देवी सुभद्रा के रथ की ऊंचाई सबसे कम है और उनका रथ दोनों भाइयों के रथो के बीच मे होता है जिससे उनके रथ की पहचान भक्तों को हो जाती है।
भगवान जगन्नाथ के रथ की विशेषता
भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदिघोष है, जिसकी ऊंचाई 42.6 फीट होती है। रथ मे 16 पहिये होते हैं और रंग लाल या पीला होता है। दारुक रथ के सारथी है और रथ के संरक्षक गरुड है। रथ मे दो द्वारपाल भी है जिनके नाम जय और विजय है। रथ पर एक ध्वज भी लहराता है जिसका नाम त्रिलोक्य्मोहिनी है जिसे देख कर भक्तों को दूर से ही पता लग जाता है की भगवान जगन्नाथ का रथ आ रहा है।
रथ यात्रा की कहानी
भगवान कृष्ण का वचन तोड़ना
कहा जाता है कि भगवान कृष्ण को सौ वर्षों तक वृंदावन से दूर रहना पड़ा। इस खबर से गोपियाँ बहुत दुखी हो गईं और उन्होंने भगवान कृष्ण को जाने नहीं दिया। उन्होंने रथ को रोकने की कोशिश की और रथ की लगाम पकड़ लीं, यह कहते हुए कि वे उन्हें जाने नहीं देंगी। गोपियाँ रथ के पहियों के सामने लेट गईं और अक्रूर को मारने लगीं, यह कहते हुए, “आप कृष्ण को ले जाना चाहते हैं, हम आपको ऐसा नहीं करने देंगे।”गोपियों की इस प्रबल भावना के सामने भगवान कृष्ण ने उन्हें समझाया कि यह उनका कर्तव्य है और वे राजा का निमंत्रण अस्वीकार नहीं कर सकते। हालाँकि, भगवान कृष्ण को अपने वचनों को न निभाने के लिए जाना जाता था। वे जानते थे कि उनके वचन का उतना महत्व नहीं है जितना उनके भक्तों के वचनों का होता है। इसलिए, उन्होंने गोपियों को आश्वासन दिया कि वे लौट आएंगे, लेकिन गोपियाँ उनके वचनों पर विश्वास नहीं कर सकीं और दुखी मन से उन्हें विदा किया।
गोपियों और श्री कृष्ण का मिलन
सौ वर्षों बाद, एक सूर्य ग्रहण के अवसर पर, गोपियाँ और वृंदावन के अन्य निवासी पवित्र स्नान के लिए कुरुक्षेत्र गए। वहां उन्हें पता चला कि भगवान कृष्ण और बलराम भी वहां मौजूद हैं। इस खबर से वे अत्यंत खुश हुए और भगवान कृष्ण से मिलने के लिए दौड़ पड़े। उन्होंने भगवान कृष्ण के साथ पुनः मिलने का उत्साहपूर्वक इंतजार किया और उनके दिव्य उपस्थिति में होने के अवसर को लेकर बहुत खुश थे।गोपियाँ और वृंदावन के निवासी कुरुक्षेत्र पहुंचकर भगवान कृष्ण और बलराम से मिले। उनके दिल आनंद और प्रेम से भर गए। भगवान कृष्ण और बलराम ने भी अपने प्रियजनों को देखकर खुशी प्रकट की और उनके साथ समय बिताया।
देवी राधा का असंतोष होना
जब वृंदावन के निवासी भगवान कृष्ण से मिलने पहुंचे, तो उनके दिल उत्साह और आनंद से भर गए। लेकिन राधा रानी का मन उदास था। उन्हें विश्वास नहीं था कि रथ पर बैठा व्यक्ति उनका प्रिय कृष्ण है। उनके कृष्ण साधारण मोर पंख पहनते थे, जबकि रथ पर बैठा व्यक्ति एक भव्य मुकुट पहने हुए था। यह सोचकर राधा दुखी हो गईं।राधा ने देखा कि उनके कृष्ण पीले वस्त्र पहनते थे, जबकि रथ पर बैठा व्यक्ति शाही वस्त्र पहने हुए था। उनके कृष्ण के गले में वन के फूलों की माला होती थी, जबकि इस व्यक्ति के गले में कीमती रत्नों से जड़ी मालाएँ थीं। उनके कृष्ण बांसुरी बजाते थे, जबकि इस व्यक्ति के पास धनुष, बाण और तलवार थी। यह सोचकर राधा का मन और भी उदास हो गया और उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि यह उनका प्रिय कृष्ण है।
भक्तों द्वारा रथ खींचना
भगवान कृष्ण के भक्त उनके रथ को खींचने के लिए दौड़ पड़े। उन्होंने पूरी भक्ति और उत्साह के साथ रथ को खींचना शुरू कर दिया। न केवल कृष्ण का रथ, बल्कि उनके भाई बलराम का रथ भी आगे बढ़ रहा था। उनकी प्यारी बहन सुभद्रा भी इस पवित्र यात्रा में उनके साथ शामिल हो गईं। उनका गंतव्य वृंदावन था। इस प्रकार, रथ यात्रा कार्यक्रम भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की यात्रा का प्रतीक है।भगवान कृष्ण के भक्त उनके रथ को खींचते समय अपार भक्ति और प्रेम से भरे होते हैं। वे भगवान के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करते हुए भजन, कीर्तन और नृत्य करते हैं। रथ यात्रा के दौरान पुरी की सड़कों पर भक्तों का उत्साह देखते ही बनता है। इस यात्रा में शामिल होकर भक्तजन अपने जीवन को धन्य मानते हैं और भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
रथ यात्रा का महत्त्व
गुंडिचा मंदिर को इस कहानी में वृंदावन, भगवान कृष्ण के पवित्र निवास का प्रतीक माना जाता है। रथ यात्रा को एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है जिसमें भक्त रथों को खींचते हैं।
रथ यात्रा का धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व बहुत बड़ा है:
- धार्मिक महत्त्व : इस यात्रा में शामिल होकर भक्तजन भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और उनकी भक्ति में लीन हो जाते हैं। यह यात्रा भक्तों को अपने पापों से मुक्ति दिलाती है और उन्हें भगवान के निकट ले जाती है।
- सांस्कृतिक महत्त्व : रथ यात्रा पुरी की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस त्योहार के दौरान पुरी शहर रंगीन झांकियों, नृत्य और संगीत से गूंज उठता है। यह त्योहार स्थानीय परंपराओं और सांस्कृतिक विविधताओं को प्रकट करता है।
- सामाजिक महत्त्व : रथ यात्रा समाज में एकता और भाईचारे का प्रतीक है। इस यात्रा में सभी वर्गों के लोग एक साथ मिलकर भाग लेते हैं, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलता है। यह त्योहार लोगों को एकजुट करता है और समाज में मेलजोल और सद्भावना को बढ़ावा देता है।